अथ सावित्रीव्रतकथा

  सच्चिदानन्द भगवानके प्रणाम कय मनुष्यक कल्याण-वृद्धि हेतु श्रुतिस्मृतिमे कहल सनातन धर्मके हम कहब पार्वती बजलीह – हे जगत्पते महादेव ब्रह्माक...


 

सच्चिदानन्द भगवानके प्रणाम कय मनुष्यक कल्याण-वृद्धि हेतु श्रुतिस्मृतिमे कहल सनातन धर्मके हम कहब


पार्वती बजलीह – हे जगत्पते महादेव ब्रह्माक परमप्रिया सावित्री देवी जे प्रभास क्षेत्रमे छथि हुनक चरित्र अपने हमरा कहू ।।1।।


हुनक चरित्र स्त्री वर्गाक पातिव्रत्य तथा सौभाग्य वर्धक थिक अतः व्रतक महात्म्य तथा इतिहास सँ युक्त हुनक चरित्र कहू ।।2।।


पार्वतीक इ प्रश्न सूनि शङ्कर बजलाह  – हे महादेवि! जे प्रभास क्षेत्रमे स्थित सावित्री देवी छथि हुनक महत्व चरित्र हम कहैत छी ।।3।।


सावित्री नामक राजकन्या सँ जेना हुनक व्रत कयल गेल से सुनू। सभ प्राणीक हितकारी धर्मात्मा मद्र देशमे ।। 4।।


नगर तथा गामवासी लोकक प्रिय क्षमाशील, सत्यवादी अश्वपति नामक राजा सन्तानहीन छलाह ।।5।।


तीर्थयात्रा करैत ओ राजा सावित्रीक परम-पावन स्थान प्रभासक्षेत्र पहुँचलाह ।।6।।


ओहि ठाम स्त्री सहित सभ कामनाके पूर्ण केनिहार सावित्रीक प्रसिद्ध व्रत केलन्हि ।।7।।


ब्रह्माक प्रिया साक्षात् भूर्भुवः स्वः स्वरूपा सावित्री देवी व्रत सँ राजा पर प्रसन्न भेलीह ।।8।।


कमण्डल धारण कयनें सावित्री देवी राजाके दर्शन दय पुनः अन्तर्हित भ’ गेलीह। बहुत दिन बाद देवी रूपिणी कन्या उतपन्न भेलीह ।।9।।


सावित्रीक पूजा तथा सावित्रीक प्रसाद सँ कन्या उत्पत्ति भेलाक कारण ब्राह्मणक आज्ञा सँ राजा हुनक नाम सावित्री रखलन्हि ।।10।।


अत्यन्त सुन्दरी, सुकुमार अङ्गवाली ओ कन्या युवती भेलीह ।।11।।


सोनाक प्रतिमा सदृश सुन्दर डाँरवाल जाहि कन्याके देखि लोक देवकन्या थिकीह ई बुझैत छल।।12।।


साक्षात् लक्ष्मी सदृश विशाल आँखि वाली अपना तेज सँ प्रकाशमान ओ कन्या भृगु सँ कहल सावित्रीक केलन्हि ।।13।।


शिर सँ स्नान कय उपवास करैत देवमन्दिर जाय विधिवत् हवन ब्राह्मण द्वारा कराय, स्तुति करौलन्हि ।।14।।


ओहि ब्राह्मण सभ सँ आशीर्वाद ग्रहण कय लक्ष्मी समान सुन्दरी ओ राजकन्या सखीक सँग पिताक समीप अयलीह।।15।।


पिताके प्रणाम कय व्रत सम्बन्धी समाचार निवेदन कय हाथ जोड़ि पिताक समीप ठाढ़ि भेलीह ।।16।।


युवावस्थाके प्राप्त लक्ष्मी रूपा अपन कन्याके देखि मन्त्री सभ सँ कन्याक हेतु विचार कय राजा बजलाह ।।17।।


हे पुत्री ! अहाँक दानकाल उपस्थित अछि किन्तु विचार करैत अहाँक तुल्यरूपी वरण कर्ता नहि देखैत छी ।।18।।


हे पुत्री ! जाहि सँ हम देवता लोकनिक दृष्टिमे अनुचित कर्ता नहि बुझल जाई तेना करू। धर्मशास्त्रमे हमरा सँ सुनल अछि ।।19।।


जे पिताक घरमे अविवाहित कन्या यदि रजोवती होइत छथि तँ पिताके ब्रह्महत्याक पाप होइत छन्हि तथा ओ कन्या शूद्री बुझल जाइत छथि ।।20।।


एहि हेतु हम अहाँके तीर्थयात्रा हेतु वृद्ध मन्त्री सभक सँग पठबैत छी अहाँ तीर्थयात्रा करैत अपन अनुकूल वरक निश्चय कय वरण करू ।।21।।


पिताक आज्ञा शिरोधार्य कय सावित्री विदा भेलीह। राजर्षि लोकनिक रमणीय तपोवन गेलीह ।।22।।


ओत’मान्य वृद्ध लोकिनके प्रणाम कय पुनः अनेक तीर्थ तथा मुनिक आश्रम घूमि ।।23।।


पुनः मन्त्री सभक सँग पिताक घर अयलीह। ओहि ठाम पिताक आगाँमे स्थित देवर्षि नारदके ।।24।।


शुद्ध आसन पर वैसल देखलन्हि। मुस्कराय बजनिहारि सावित्री नारदके प्रणाम कय जाहि हेतु वन, तीर्थाटन गेल छलीह तकर प्रयोजन कहलन्हि ।।25।।


सावित्री बजलीह – शाल्व देशमे धर्मात्मा क्षत्रिय द्युमत्सेन नामक राजा छलाह जे दुर्दैव वश आन्हर भ’ गेलाह ।।26।।


छोट बालकवाला द्युमत्सेन प्रजा सँ वहिष्कार भेला सँ छोट बच्चावाली स्त्रीक सँग वनके विदा भ’ गेलाह ।।27।।


वनमे ओहि वृद्ध पिता द्युमत्सेनक तनमन सँ सेवा कयनिहार परमधार्मिक हुनक पुत्र सत्यवान् हमर वर योग्य छथि अतः मन सँ वरण कयने छी ।।28।।


ई सुनि नारद बजलाह – हे राजन् अहाँक कन्या सावित्री सँ बाल स्वभाव वश परम कष्टप्रद कार्य कयल गेल जे गुणवान् जानि सत्यवानक वरण केलन्हि ।।29।।


हुनक पिता तथा माता सत्ये वजैतक छथि तथा ‘सत्य बाजू’ ई उपदेश करैत छथि अतः मुनि जन सँ सत्यवान् हुनक नाम राखल गेल अछि। हुनका सदा घोड़ा प्रिय छन्हि तथा माटिक घोड़ा बनबैत छथि तथा नाना प्रकारक चित्र लिखैत छथि। अतः चित्राश्व ईही लोक सँ कहल जायत छथि ।। 30-31।।


सत्यवान् रन्तिदेवक शिष्य एवं दानमे समान, तथा शिविर आओर उसीनर केर समान ब्राह्मणसेवक एवं सत्यवादी छथि ।।32।।


राजा ययातिक समान उदार, चन्द्रमाक सदृश देखवामे प्रिय, सुन्दरतामे अश्विनी कुमार सदृश, बलवान् द्युमत्सेनक पुत्र सत्यवान् छथि ।।33।।


केवल एक महान् दोष हुनकामे छन्हि, दोसर नहि। आई सँ एक वर्षमे क्षीण आयु वला ओ शरीरक त्याग करताह ।।34।।


(नारदक ई कथा सुनि राजा कन्याके कहलन्हि जे अहाँ पुनः तीर्थाटन जाऊ तथा दोसराक वरण करू) ई सुनि सावित्री राजाके कहलन्हि  – राजा लोकिन तथा ब्राह्मण एके बेरि बजैत छथि अर्थात् अपना बातके बदलैत नहि छथि ।।35।।


तहिना कन्या एके बेरि देल जायत छथि। ई तिनु एके बेरि होइत छैक बेरि – बेरि नहि दीर्घायु अथवा अल्पायु, सगुण वा निर्गुण ।।36।।


हमरा सँ एक बेरि पतिक वरण कयल गेल पुनः दोसराक वरण नहि करब। कोनो कार्य पहिने मन सँ निश्चित कय वचन द्वारा कहल जाइत अछि ।।37।।


पश्चात् क्रिया द्वारा सम्पन्न कयल जाइत अछि। अतः कर्तव्य, अकर्तव्यक निश्चय करवामे अपन मने प्रणाम थिक। अतः मनक निश्चयके हम नहि बदैल सकैत छी। ई सुनि नारद बजलाह – हे राजन! जखन एहेन निश्चय अहाँक कन्याके अछि तँ शिघ्रे हिनका मनक अनुकूल विवाह करू ।।38।।


अहाँक कन्या – सावित्रीक विवाहोत्सव निर्विघ्न सम्पन्न हो ई कहि नारदजी आकाशमे उड़ि स्वर्ग गेलाह ।।39।।


राजा अपन कन्याक विवाह-सामग्री जुटाय शुभ मुहूर्तमे वैदिक ब्राह्मण द्वारा विवाह सम्पन्न कयल ।।40।।


सावित्री मन-अभिलाषित पतिके पावि अत्यन्त प्रसन्न भेलीह जेना स्वर्ग पावि धर्मात्मा प्रसन्न होइत छथि ।।41।।


द्युमत्सेनक आश्रममे वास करैत हुनका लोकिनक किछु काल बीति गेल ।।42।।


किन्तु आश्रमवासिनी सावित्री केर मनमे दिन-राति नारदक कहल स्मरण रहैत छलन्हि ।।43।।


तखन वर्ष बीतला पर ताहि दिन सत्यवानके मरवाक छलनि से काल निकट आएल ।।44।।


जेठ शुक्ल द्वादशीक सँध्याकाल नारदक कहल  दिनके गनैत सावित्रीक हृदयमे ।।45।।


चारिम दिन मृत्युक समय होएत ई विचारि दुःखार्ता तीनि दिनुक उपवास कय सावित्री आश्रममे छलीह ।।46।।


स्नान कय देवताक पूजा कय सासु, स्वसुरक चरण केर वन्दना करैत तीनि राति वितौलन्हि ।।47।।


तखन चारिम दिन सत्यवान जखन कूड़हरि लय लकड़ीक हेतु वन चललाह तखन सावित्री सासु, स्वसुरक आज्ञा लय सत्यवान् पाछाँ चललीह ।।48।।


तखन शीघ्र फल, फूल, कुश होमक हेतु सुखायल समिधक (लकड़ी) बोझ बान्हलान्हि ।।49।।


तखन भानसक हेतु सुखायल काठ कटैत सत्यवानक माथमे दर्द होमय लगलन्हि। काठ छोड़ि बड़क डारि पकड़ने सावित्रीके कहलन्हि जे हमरा माथमे वेदना होइत अछि ।।50।।


अतः अहाँक कोरमे हे सुन्दरी ! किछु काल सुतः चाहैत छी। ई सुनतहि सावित्री चौंकलीह। दुःख भरल मन सँ पतिके कहलन्हि – हे महाबाहो ! विश्राम करू ।।51।।


पश्चात थकावटके दूर कय आश्रम जाएब। जावत हुनक माथ अपना कोरामे लय पृथ्वी पर वैसलीह ।।52।।


तावत कारी तथा पीयर रंग वला किरीट तथा पीत वस्त्र पहिरने साक्षात् उदित सूर्य जकाँ एक पुरुषके  सावित्री देखलन्हि।।53।।


ओही कारी पीयर वस्त्रधारी उदित सूर्य सदृश्य पुरुषके प्रणाम कय सावित्री कहलन्हि – अहाँ देवता अथवा दैत्यके छी जे हमरा डराब’ आयल छी ।।54-55।।


हे देव कोनो शक्ति सँ हम अपना धर्म सँ वंचित नहि भ’ सकैत छी हे पुरुषश्रेष्ठ ! अहाँ हमरा प्रदीप्त अग्निशिखा सदृश बुझू ।।56।।


ई सुनि यमराज कहलन्हि – हे पतिव्रते ! सावित्री सकल प्राणीक भयप्रद हम यमराज थिकहुँ। अहाँक समीपमे ई पति सत्यवान गतायु छथि ।।57।।


हमर दूत अहाँक प्रभाव सँ हिनका लय जेवामे असमर्थ अछि अतः हम स्वयं आयल छी ।।58।।


ई कहि पाशधारी यमराज अङ्गुष्ठप्रमाण पुरुष सत्यवानके पाश सँ वान्हि सरीर सँ खिचलन्हि ।।59।।


तखन यमपुरीक रास्तामे जायव आरम्भ केलन्हि ई देखि पतिव्रता सावित्री यमराजक पाछाँ धेलन्हि ।।60।।


पातिव्रत्यक प्रभाव सँ ओहि अगम्य रास्तामे सावित्रीके कनिको नहि थाकल देखि यमराज बजलाह – हे सावित्री ! एहि रास्तामे कोना आवि गेलहुँ शीघ्र फिरि जाऊ ।।61।।


हे सुन्दरी ! एहि रास्तामे किओ जीवित मनुष्य नहि आवि सकैछ। पुनः सावित्री कहलन्हि – हमरा तँ कनिको ग्लानी अथवा थकान नहि बुझि पड़ैछ ।।62।।


पतिक पाछाँ जाइत तथा विशेष रुपे अपनेक समीपमे कनेको दुःख नहि। जाहि हेतु सज्जनक गति सज्जने होइत अछि तथा पतिव्रता स्त्रीक गति सदा पतिये होइत छथि ।।63।।


वर्णाश्रम गति वेद तथा शिष्यक गति गुरु होइत छथि। सभ प्राणीक स्थान पृथ्वी पर होइत अछि ।।64।।


किन्तु पतिके छोड़ि स्त्रीक कोनो आश्रय नहि। एहि प्रकारेँ युक्ति युक्त मधुर वाक्य सँ ।।65।।


प्रसन्न यमराज सावित्रीके कहलन्हि – हे मानिनि! अहाँ पर प्रसन्न छी वरदान मांगू ।।66।।


ई सुनि सावित्री विनय सँ नम्र भ’ स्वसुरक राज्य तथा आँखि मङ्गलन्हि ।।67।।


 ‘तथास्तु’ कहि विदा भेला पर पुनः सावित्री पाछाँ लगलीह। ई देखि यमराज पुनः वर मांगय लेल कहलन्हि तखन सावित्री पिता अश्वपतिके सौ पुत्र तथा अपनहुँ सौ पुत्रक वरदान तथा पतिक जीवन एवं सदा धर्म सिद्धि मङ्लन्हि ।।68।।


यमराज सभ अभीष्ट वरदान दय फिरौलन्हि। एहि प्रकारेँ सावित्री पतिके पावि प्रसन्न पतिक सँग सुख सँ आश्रम गेलीह। जेठ मासक अमावस्यामे ई व्रत केलन्हि।। 69-70।।


एहि व्रतक महात्म्य सँ राजा द्युमत्सेनक सुन्दर आँखि पावि निष्कंटक अपना देशक राज्य पौलन्हि ।।71।।


तथा सावित्रीक पिता अश्वपति एक सौ पुत्र पौलन्हि। ई कहि महादेव कहलन्हि – हम सावित्री व्रतक महात्म्य हम कहल ।।72।।


पुनःपार्वती बजलीह-हे शिव! ज्येष्ठ मासमे कोन विधान सँ सावित्रीक व्रत सावित्री केलन्हि से विधान हमरा कहू ।।73।।


एहि व्रतमे कोन देवता, कोन मन्त्र, की फल से विस्तार पूर्वक हे शङ्कर! हमरा कहू ।।74।।


ई सुनि शङ्कर बजलाह हे देवेशि ! सती सावित्री सँ कोन तरहे सावित्रीक व्रत कयल गेल से कहैत छी, आदर सँ सुनू ।।75।।


ज्येष्ठकृष्णक त्रयोदशी तिथिमे दतमनि, स्नान आदि कय तीनि रातिक उपासके नियम ठानथि ।।76।।


तीनि रातिक उपवासमे असर्मथ ब्रह्मचर्य पालन करैत  त्रयोदशीमे एक वेरि सँध्याकाल तथा चतुर्दशीमे  विनुमांगल भोजन कय अमावस्यामे पूर्ण उपवास करथि ।।77।।


नित्य महानदी वा साधारण नदी वा पोखैरमे स्नान कय विशेष रूप सँ पांडू कूपमे स्नान कयला सँ सभ तीर्थक फल होइत अछि ।।78।।


स्नानक बादकोनो पात्रमे बालु प्रस्थ मात्र (अढ़ाई पाव) लय ।।79।।


अथवा बालुक स्थानमे धान, यव, तिल आदि लय बाँसक पात्रमे दू वस्त्र सँ लपेटल ।।80।।


सावित्री प्रतिमा सभ अंग सँ शोभित सोन वा माटिक अथवा काठक अपना शक्तिक अनुसार बनवाय पूजा करथि ।।81।।


सावित्रीक हेतु लाल तथा ब्रह्माक हेतु स्वच्छ वस्त्र देथि। ब्रह्मा सहित सावित्रीके पूजा करथि ।।82।।


चानन, फूल, धुप, दीप, नैवद्य, नाना प्रकारक फल ककड़ी, नरियर, कुम्हड़, खजूर, कथ, दाड़िम, जामुन, नेवो, नारंग, कटहर, जीर मरीच, आदि कटुरस, गुड़ ओ नोन मिलल वस्तु बाँसक डालीमे जयन्ती जकाँ जनमाओल सप्त धान सँ कुङ्कुम केसरि सँ रंगल रेशम सूत सँ शक्तिक अनुसार पूजा करथि। एहि प्रकारेँ ब्रह्माक प्रिया सावित्री अवतार लैत छथि ।।82-87।।


हे वेदजननी, वीणापुस्तकधारिणी, हे प्रणवपुर्विके! अहाँके बार-बार नमस्कार। हमरा हेतु सदा सौभाग्य (सोहाग) प्रदान करू ।।88।।


एहि तरहे विधिवत् पूजाकय गीत, बाजा आदि सँ स्त्री समूहके सँग जागरण करथि ।।89।।


नचैत, हँसैत, आनन्द सँ राति बितावथि तथा ब्राह्मण द्वारा सावित्रीक कथा पढ़ावथि तथा सुनथि ।।90।।


यावत प्रात हो तावत भावपूर्ण गीत सँ ब्रह्माक सँग सावित्रीक विवाह मनावथि ।।91।।


सात जोड़ी ब्राहमण, ब्राह्मणीके स्वच्छ वस्त्र आदि सँ पूजा करथि। सभ सामग्री सँ युक्त घर-दान करथि ।।92।।


वेद तथा सावित्रीक कल्पके जननिहार सावित्रीक कथा वाचकके पूजाके अन्तमे सावित्रीके प्रतिमा देथि। दैवज्ञ ऊञ्छ वृति (एक-एक दाना वीछि गुजर केनिहार) अग्निहोत्री, गरीब ब्राह्मणके एहि प्रकारेँ दान दय रातिमे निमन्त्रण दय भोजन करावथि ।।93-94।।


अमावस्यामे बड़ वृक्ष तर चौदह जोड़ीके (पति-पत्नी) निमंत्रित कय तखन प्रातः उषाकाल उपस्थित भेला पर भक्ष, भोज्य प्रसाद आदि पूजा स्थानमे लावथि। पवित्रता पूर्वक भानस कय यत्नपूर्वक पत्नीयुक्त ब्राह्मणके निमंत्रित कय ओहि ठाम बजावथि। सावित्रीक पूजा स्थानक समीप स्नान कयल ब्राहमण केर पैर धोये ।।95-97।।


पत्नी सहित वैसावथि। सावित्रीके आगाँ पति-पत्नीके भोजन देथि ।।98।।


पति-पत्नीक भोजन करौला सँ हम भोजित होइत छी ताहिमे सन्देह नहि। दोसर जोड़ीके भोजन करौला सँ विष्णु सँ लक्ष्मी सहित भोजित भ’ वरदान दैत छथि। तेसर जोड़ीके भोजन करओला सँ सावित्री सहित ब्रह्मा भोजित होइत छथि ।।99-100।।


एक-एक जोड़ीक भोजनक समान फलप्रद कहल गेल अछि। अठारह प्रकारक वस्तु सँ देवी सावित्रीक समीप भोजन करओनिहारि केर कुलमे किओ विधवा, वन्ध्या वा दुर्भगा नहि होइछ ।।102।।


तथा विशेष कन्या उत्पन्न केनिहारि अथवा पतिक अप्रिया नहि होइछ ।।103।।


अतः यत्नपूर्वक सावित्रीक आगाँ कड़ु तीत आदि सँ वर्जित भोजन देथि ।।104।।


कदापि खट्टा अथवा नोन नहि खुआवथि। सुन्दर पाँच प्रकारक भोजन करावथि ।।105।।


घृत सँ पूर्ण तथा बहुत दूध सँ युक्त मालपुआ बनावथि। दोसर प्रकारक अशोक वर्तिका (सेवइ) ।।106।।


तेसर प्रकारक पकवान खजूर एवं चारिम प्रकारक गुड़ घी मिश्रित गहूँमक चूर्ण (सँजाव) बनावथि ।।107।।


एहि प्रकारक वस्तु सँ भोजन करओनिहारि पतिक अतिप्रिया तथा भोजन करेनिहार पुरुष पत्नीक अतिप्रिय होइत छथि। एहि प्रकारक व्रतपूजा केनीहारक कुल धनधान्य सँ पूर्ण तथा सैकड़ो स्त्री पुरुष सँ सँकीर्ण ।।108।।


एहि प्रकारक पकवान सँ हुनक कुल सम्पन्न होइत छन्हि सन्देह नहि हुनका कुलमे ज्वर, सन्ताप, वियोगजन्य दुःख नहि होइत छन्हि ।।109।।


अशोक वर्तिका दान सँ हुनक एकैस पीढ़ी पुत्र पौत्रादि तथा असँख्य दास दासी सँ पूर्ण होइत छन्हि ।।110।।


  जे किओ पूरी दान करैत छथि तनिक कुल सभ तरहे पूर्ण, कन्या, पुतहु, सभ पुत्रवती होइत छन्हि ।।111।।


शिखरिणी (रसाल नामक खाद्य अथवा दाख आम, कठहर) दान केनिहारि युवतीक कुल सभ-सिद्धि सँ पूर्ण आनन्दित रहैत छन्हि ।।112।।


लड्डूक प्रदान सँ पूर्वोक्त फल होइछ ई ब्रह्माक कहल अछि। सावित्रीक पूजा स्थानमे गौरी (आठ वर्षक कुमारि कन्याक) भोजन करायव विशेष फलप्रद होइछ ।।113।।


  हजार गौरीक भोजन करओनिहारि जन्म, जन्ममे सौभाग्यवती, पुत्रवती तथा धनधान्य सम्पन्ना सती होइत छथि ।।114।।


नाना प्रकारक पेय तथा सुन्दर मधुर तथा दाखक रस एवं गुड़ सहित तेतरि ।।115।।


सुन्दर चीनीक सरबत सुवासिनी तथा ब्राह्मणके देवाक चाही ।।116।।


अतिरिक्त क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र आदिक हेतु यथा योग्य सर्वत प्रसाद आदि देवक चाही ।।117।।


सधवा स्त्रीवर्गक विधिवत् साड़ी, आङी, कुङ्कुम, सुगन्ध माला, चानन, धुप, दीप, काजर, माथमे सिन्दूर सँ पूजा कय हाथमे नारियर वासित सुपारी आदि सँ पूर्ण डाली दय प्रणाम कय विदा करथि ।।118-120।।


पश्च्यात कन्या, बालक, बन्धुवर्ग सहित स्वयं भोजन करथि अथवा तीर्थमे यदि एतेक लोक केर भोजन नहि भ’ सकय तँ घर जाय उक्त प्रकारेँ लोकके भोजन करावथि जाहि सँ जल्दी  देवी सावित्री प्रसन्न होथि। एहि प्रकारेँ घर आवि जीवित पिता, माताक भोजन आदि सँ सेवा करथि।। 121-122।।


गौरी कन्याक भोजन, साग सहित दानक्रिया राजसी कहबैछ जे मनुष्यक परमकृति बढौनिहार होइछ ।।123।।


हे पार्वती सभ पातक सँ शुद्धि हेतु मनुष्यके एहि सावित्री व्रतक उद्यापन करवाक चाही ।।124।।


सकाम वा निष्काम उद्यापन कयला सँ सभ पाप नष्ट होइछ तथा एहि लोकमे धनधान्य सुन्दर स्त्री सुख प्राप्त होइछ ।।125।।

टिपण्णी सभ

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Maithili Patra (मैथिली पतरा): अथ सावित्रीव्रतकथा
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