कुशी अमावश्याके कुश उखाड़वाक विधान छै! कुश उखाड़य काल लेल मन्त्र देल गेल अछि!
कुशमूले स्थितो ब्रह्मा कुशमध्ये जनार्दनः ।
कुशाग्रे शङ्करं विद्यात् कुशान् मे देहि मेदिनि! ।।
इति भूमिं स्पृष्ट्वा
ॐ कुशोऽसि कुशपुत्रोऽसि ब्राह्मणा निर्मितः पुरा ।
देवपितृहितार्थाय कुशमुत्पाटयाम्यहम् ।।
इत्युच्चार्य हुंं फट्कारेण दर्भान् समुद्धरेत् ।।
भादव कृष्ण पक्षक अमावास्या कुशी अमावस्या कहवैछ। ओहि अमावस्यामे कुश उखाड़वाक चाही। तिथि तत्त्वचिन्तामणि आदि मैथिल निबन्धमे मरीचिऋषिक कथन अछि जे ‘मासे नभसि अमावास्या’ इत्यादि। तात्पर्य ई जे दिन कुशकसंग्रह करवाक चाही, एहि दिन उखाड़ल कुश सभ दिन टटका बुझल जायत अछि। अतः ओहि कुशक विनियोग सभकार्यमे करवाक चाही। यद्यपि नभः शब्द साओन मासक बोधक थीक तथापि शुक्लादि चन्द्रमासक गणना सँँ भाद्र कृष्णक अमावास्या श्रावणक अमावास्या बुझबाक चाही।
मार्कण्डेय मुनिक कहल कुश आनवाक प्रकार एहि प्रकार अछि-पवित्रभय पवित्र स्थानमे पूब अथवा उत्तर मुँह बैसि दहिन हाथे खुरपी लय ॐ कहि कुश धय ‘ॐ विरिञ्चना सहोत्पन्न’ इत्यादि पढ़ि.।
‘ॐ कुशमूले स्थितो ब्रह्मा’ इत्यादि पढ़ि पृथ्वीक प्रार्थना कय ‘ॐ’ कुशोऽसि कुशपुत्रोऽसि इत्यादि मन्त्रक अन्तमे ‘हुँँ’ फट् कहि कुश उखाड़थि।
टिपण्णी सभ